महाराष्ट्र में शिवसेना पर कब्जे की लड़ाई रोमांचक मोड़ पर पहुंच गई। चुनाव आयोग ने शिवसेना का सिंबल तीर-कमान को फ्रीज कर दिया। यानी, अंधेरी ईस्ट विधानसभा सीट के लिए होने वाले उप चुनाव में न तो उद्धव ठाकरे गुट और न ही एकनाथ शिंदे गुट इस सिंबल का इस्तेमाल कर पाएंगे।
राजनीति पंडित इसे उद्धव ठाकरे के लिए झटका और एकनाथ शिंदे की जीत बता रहे हैं।
सवाल-1 : चुनाव आयोग में ठाकरे और शिंदे गुट ने क्या दलीलें दी थीं?
जवाब : उद्धव ठाकरे से बगावत कर BJP के सहयोग से सरकार बनाने वाले एकनाथ शिंदे गुट ने चुनाव आयोग के सामने तीर-कमान पर दावा किया था। वहीं ठाकरे की ओर से कहा गया था कि शिंदे पार्टी छोड़ चुके हैं, इसिलए उनका पार्टी या उसके चुनाव चिन्ह पर कोई दावा नहीं बनता।
हाल ही में आयोग ने ठाकरे और शिंदे से शिवसेना के चुनाव सिंबल पर अधिकार के दावे को लेकर जवाब दाखिल करने को कहा था। ठाकरे ने शुक्रवार को चुनाव आयोग में अपना जवाब दाखिल किया। उद्धव गुट ने 5 लाख से ज्यादा पार्टी पदाधिकारियों और सदस्यों के समर्थन वाला हलफनामा भी दाखिल किया है। उन्होंने पत्र लिखकर आयोग से अपील की थी कि वो यथास्थिति बनाए रखे और जल्दबाजी में कोई फैसला न ले। साथ ही दावा किया था कि आने वाले उपचुनाव में एकनाथ शिंदे गुट कोई उम्मीदवार नहीं उतार रहा।
उद्धव ठाकरे ने एकनाथ शिंदे के 40 विधायकों के समर्थन वाले दावे पर कहा कि याचिकाकर्ता का कथित समर्थन करने वाले 40 विधायकों को अयोग्य ठहराया गया है और उनकी अयोग्यता को लेकर याचिकाएं लंबित हैं। ठाकरे ने 12 विधायकों के समर्थन वाला चार्ट भी पेश किया। इसमें दावा किया गया कि शिंदे का समर्थन करने वाले 7 सांसदों और 12 विधायकों को अयोग्य करार दिया गया है। उन्होंने बताया कि उनके पास तीन राज्यसभा सांसदों का भी समर्थन है, जो शिंदे के पास नहीं है।
सवाल-2 : क्या शिवसेना की तरह पार्टियों का सिंबल फ्रीज होना सामान्य बात है?
जवाब : जब किसी राजनीतिक पार्टी में कोई टूट होती है या बंटवारा होता है तो अक्सर उसके चुनावी सिंबल के लिए संघर्ष देखने को मिलता है। देखा जाए तो चुनावी सिंबल किसी पार्टी की पहचान का मुख्य जरिया होता है। साथ सिंबल के साथ वोटरों का एक खास जुड़ाव भी होता है।
इसे आप इस उदाहरण से भी समझ सकते हैं- जैसे भारतीय वोटरों को आप अक्सर यह कहते हुए सुनते होंगे कि इस बार कमल के फूल या पंजे या साइकिल या झाड़ू को वोट देंगे। यानी उनका मतलब BJP, कांग्रेस, सपा और आम आदमी जैसी पार्टियों से होता है।
चुनाव आयोग ने लास्ट टाइम इस तरह का फैसला लोक जन शक्ति पार्टी यानी LJP के मामले में लिया था। जून 2021 में लोजपा दो फाड़ हो गई थी। इसके बाद अक्टूबर 2021 में आयोग ने LJP का चुनावी सिंबल बंगला फ्रीज कर दिया था। एक गुट का नेतृत्व रामविलास पासवान के बेटे चिराग कर रहे थे। वहीं दूसरा गुट पशुपति कुमार पारस का था।
शिवसेना के मामले की तरह उस वक्त भी आयोग ने 30 अक्टूबर 2021 में कुशेश्वर अस्थान और तारापुर विधानसभा में होने वाले उप चुनाव से पहले यह फैसला दिया था। यानी न तो चिराग पासवान गुट और न ही पशुपति पारस गुट उस चुनाव में बंगला सिंबल का यूज कर सकते थे।
इससे पहले 2017 में सपा और AIADMK में टूट के बाद दोनों पार्टियों के चुनावी सिंबल साइकिल और दो पत्ती को लेकर खींचतान देखी गई थी। यानी किसी पार्टी में टूट के बाद ही सिंबल को फ्रीज करने की बात होती है।
सवाल-3 : चुनाव आयोग कैसे डिसाइड करता है कि सिंबल किस पार्टी को मिलेगा?
जवाब : शिवसेना की तरह किसी मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय या राज्य पार्टी में फूट होती है तो चुनाव आयोग द रिजर्वेशन सिंबल्स (रिजर्वेशन एंड अलॉटमेंट) ऑर्डर-1968 के पैरा 15 के तहत सिंबल पर फैसला करता है। चुनाव आयोग में मामला पहुंचने पर वह पार्टी में वर्टिकल बंटवारे की जांच करता है। इसमें विधायिका और संगठन दोनों देखे जाते हैं।
इसके अलावा चुनाव आयोग बंटवारे से पहले पार्टी की टॉप कमेटियों और डिसीजन मेकिंग बॉडी की लिस्ट निकालता है। इससे ये जानने की कोशिश करता है कि इसमें से कितने मेंबर्स या पदाधिकारी किस गुट में हैं। इसके अलावा किस गुट में कितने सांसद और विधायक हैं।
ज्यादातर मामलों में आयोग ने पार्टी के पदाधिकारियों और चुने हुए प्रतिनिधियों के समर्थन के आधार पर सिंबल देने का फैसला दिया है, लेकिन अगर किसी वजह से यह ऑर्गेनाइजेशन के अंदर समर्थन को सही तरीके से जस्टिफाई नहीं कर पाता, तो आयोग पूरी तरह से पार्टी के सांसदों और विधायकों के बहुमत के आधार पर फैसला करता है।
सवाल-4 : 1968 से पहले ऐसे मामलों में क्या होता था?
जवाब : 1968 से पहले चुनाव आयोग कंडक्ट ऑफ इलेक्शन रूल्स 1961 के तहत नोटिफिकेशन और एग्जीक्यूटिव ऑर्डर जारी करता था। 1968 से पहले सबसे हाई-प्रोफाइल मामला 1964 में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया यानी CPI में टूट का था।
CPI से अलग हुए एक गुट ने दिसंबर 1964 में चुनाव आयोग पहुंचा और उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) यानी CPI (M) के रूप में मान्यता देने की मांग की। इस दौरान इस गुट ने आंध्र प्रदेश, केरल और पश्चिम बंगाल के उन सांसदों और विधायकों की सूची प्रदान की जिन्होंने उनका समर्थन किया।
चुनाव आयोग ने इस दौरान अपनी जांच में पाया कि इस गुट का समर्थन करने वाले सांसदों और विधायकों के वोट 3 राज्यों में 4% से अधिक थे। ऐसे में चुनाव आयोग ने इस गुट को CPI (M) के रूप में मान्यता दे दी।
सवाल-5 : 1968 के आदेश के बाद पहले मामले में क्या हुआ था?
जवाब : 1968 में नया नियम आने के बाद पहला मामला कांग्रेस में फूट का था। 1969 में कांग्रेस 2 धड़ों में बंट गई थी। 3 मई 1969 को राष्ट्रपति डॉ जाकिर हुसैन की मौत होती है। उपराष्ट्रपति वीवी गिरी कार्यवाहक राष्ट्रपति बनते हैं। उस समय तक उपराष्ट्रपति को ही राष्ट्रपति बनाने का चलन था, लेकिन कांग्रेस सिंडिकेट ने इस विचार को खारिज कर दिया। इसके बाद इंदिरा गांधी और दिग्गज नेताओं के ताकतवर गुट कांग्रेस सिंडिकेट के बीच तनातनी नजर आने लगी।
सिंडिकेट नेता के कामराज, एस निजलिंगप्पा और अतुल्य घोष नीलम संजीव रेड्डी को राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाया। रेड्डी सिंडिकेट के करीबी थे। उस वक्त की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उप राष्ट्रपति रहे वीवी गिरी को निर्दलीय के रूप में मैदान में उतरने के लिए प्रोत्साहित किया। साथ ही पार्टी अध्यक्ष निजलिंगप्पा की ओर से जारी व्हिप की अवहेलना करते हुए पार्टी नेताओं से अंतरात्मा की आवाज पर वोट करने को कहा।
गिरी के राष्ट्रपति चुनाव जीतते ही इंदिरा को पार्टी से बाहर कर दिया जाता है। ऐसे में पार्टी निजलिंगप्पा के नेतृत्व वाली ओल्ड कांग्रेस (O) और इंदिरा के नेतृत्व वाली नई कांग्रेस (R) में बंट जाती है। चुनाव आयोग ने ओल्ड कांग्रेस को दो बैलों की जोड़ी का सिंबल बरकरार रखा। वहीं इंदिरा गुट को गाय और बछड़ा सिंबल दिया गया।
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